मसूर की वैज्ञानिक खेती , Cultivation of Lentil

               Cultivation of Lentil

वानस्पतिक वर्गीकरण (Botanical Classification)


वानस्पतिक नाम-लैन्स एसकुलैण्टा (Leis esculentu Moench)

कुल (Family)–लेग्यूमिनेसी (Leguminaceae)

मसूर में गुणसूत्र संख्या-2n =14

मसूर लेग्यूमिनोसी कुल के जीनस लैंस का सदस्य है। दानों के आकार के आधार पर मसूर को दो वर्गों में विभक्त किया जा सकता है।
1. Lens esculenta macrosperma : इनके बीज अपेक्षाकृत बड़े होते हैं।
2. Lens esculenta microsperma : इनके बीज अपेक्षाकृत छोटे हैं। 

महत्त्व तथा उपयोग (Importance and Utility)


 मसूर की खेती दाने के लिए की जाती है। तथा दाने का प्रयोग प्रमुख रूप से दाल के लिए किया जाता है। दाल के अतिरिक्त मसूर के दाने का प्रयोग अन्य व्यंजन बनाने के लिए भी किया जाता है। मसूर की दाल अन्य दालों की अपेक्षा अधिक पौष्टिक तो होती ही है साथ ही रोगियों के लिए मसूर की दाल अत्यन्त लाभदायक होती है। पेट की बीमारियों तथा अन्य बीमारियों के मरीजों को हल्का भोजन प्रदान करने के उद्देश्य से मसर की दाल को प्रयोग भी सब्जियों के लिए किया जाता है। मसूर के पौधे को हरे चारे के रूप में भी जानवरों को खिलाया जाता है। इसके अतिरिक्त मसूर का भूसा अत्यन्त पौष्टिक होता है तथा जानवर इसे बहुत चाव से खाते हैं।

उत्पत्ति एवं इतिहास (Origin and History)-


मसूर की खेती मिस्र, ग्रीस, इटली व भारत में सदियों से होती आ रही है। अत: वैज्ञानिकों का विचार है कि मसूर का जन्म-स्थान यही क्षेत्र रहा होगा। हैलीना वेरुलिन नामक वैज्ञानिक के अनुसार, मसूर का जन्म-स्थान हिन्दूकुश पर्वत के मध्य का क्षेत्र है।

 वितरण एवं क्षेत्रफल (Area and Distribution)


 -दक्षिण-पश्चिमी यूरोप तथा एशिया के समशीतोष्ण कटिबन्धीय क्षेत्रों में मसूर की खेती व्यापक रूप से की जाती है। संयुक्त राज्य अमेरिका के वाशिंगटन प्रान्त में तथा दक्षिणी अमेरिका के चिली तथा अर्जेण्टाइना में भी मसूर की खेती की जाती है।

जलवायु (Climate)-


मसूर के लिए समशीतोष्ण जलवायु की आवश्यकता होती है। ऊष्ण कटिबन्धीय व उपोषण कटिबन्धीय क्षेत्रों में मसूर शरद् ऋतु की फसल के रूप में उगाई जाती है। विभिन्न स्थानों पर विभिन्न प्रकार की जलवायु में मसूर की फसल समुद्र सतह से लेकर लगभग 3500 मीटर की ऊँचाई तक उगाई जाती है। पौधों की वृद्धि के लिए अपेक्षाकृत अधिक ठण्डी जलवायु की आवश्यकता होती है अत: भारत में मसूर की फसल रबी की ऋतु में उगाई जाती है।

भूमि (Soil)–


फलीदार फसल होने के कारण मसूर की खेती सभी प्रकार की कृषियुक्त भूमियों पर की जा सकती है। पंजाब तथा उत्तर प्रदेश में रेतीली दोमट तथा दोमट सैलाबी भूमि एवं उत्तर भारत में मैदानी भागों की एल्यूवियल मिट्टी, मध्य प्रदेश तथा दक्षिणी भारत में अन्य स्थानों की काली मिट्टी तथा कर्नाटक एवं अन्य प्रदेशों की लैटराइट मिट्टी पर मसूर की फसल सफलतापूर्वक उगाई जाती है।

बीज दर एवं अन्तरण-


बीज दर, बोने के समय, बीज का आकार, भूमि की उर्वरता व बुवाई की विधि आदि बातों पर निर्भर करती है। छोटे दाने वाली अक्तूबर-नवम्बर में बोई जाने वाली, जातियों की बीज दर तराई क्षेत्र में 25-30 किग्रा० व बड़े दाने वाली, अक्तूबर-नवम्बर में बोई जाने वाली जातियों
की बीज दर 35-40 किग्रा० प्रति हेक्टेयर रखते हैं। देर से बुआई करने के लिए या कमजोर भूमियों में बीज दर 50-60 किग्रा०/हेक्टेयर तक भी रखते हैं।

अन्तरण : अगेती बुआई-25-30 x 1-2 सेमी०।

पछेती बुआई-15-20 x 1--2 सेमी०।

मसूर को मिश्रित फसल के रूप में उगाने पर कम बीज दर की आवश्यकता होती है।

बोने का समय-


देश के विभिन्न क्षेत्रों में अक्तूबर से दिसम्बर तक इसकी बुआई करते हैं। शुष्क क्षेत्रों में बुआई अगेती करना लाभदायक है। अन्यथा फसल पकने के समय फसल की कमी होने पर दानों का आकार छोटा रह जाता है। मध्य अक्तूबर में फसल की बुआई करने पर अंकुरण के लिए काफी नमी मिल जाती है अत: अधिक उपज प्राप्त होती है।

 बोने की विधि–


उचित अन्तरण पर देशी हल की सहायता से कुंड निकालकर मसूर की बुआई की जाती है। मृदा में कम नमी होने पर यह विधि सर्वोत्तम है।

खाद–


मृदा में पोषक तत्त्व (खाद-उर्वरक) डालने से पूर्व मृदा का परीक्षण करना आवश्यक है। आध्यम व कम उर्वरा वाली भूमि में 20-30 किग्रा० नत्रजन, 50-60 किग्रा० फॉस्फोरस व आवश्यकतानुसार पोटाश (20-30 किग्रा०) प्रति हेक्टेयर बआई के समय ही खेत में संस्थापन विधि नारा दे दिया जाता है। मसूर के पौधों की वृद्धि जस्ते की कमी से भी प्रभावित होती है। जस्ते की कमी दर करने के लिए 0.5% जिंक सल्फेट + 0.25% चूने के घोल का छिड़काव खड़ी फसल में आवश्यकतानुसार करना चाहिए।

सिंचाई एवं जल निकास–


बुआई के समय मृदा में नमी की मात्रा कम होने पर पलेवा करना
आवश्यक होता है। मसूर की खेती अधिकतर असिंचित भागों में ही की जाती है। उचित समय पर सिंचाई करने में, असिंचित फसल की अपेक्षा सिंचित फसल की उपज में 2-2.5 गुना तक वृद्धि हो जाती है।
पहली सिंचाई शाखाएँ बनने पर (बोने के 40-45 दिन बाद), दूसरी सिंचाई फलियाँ बनते समय करना आवश्यक है। फालतू पानी खेत में ठहरने पर उपज में कमी करता है। क्योंकि नाइट्रोजन स्थिरीकरण
अवरुद्ध होने के कारण पौधे पीले पड़ जाते हैं।


निकाई-गुड़ाई–


खरपतवार नियन्त्रण के लिए, फसल बोने के 30-35 दिन के बीच एक दो निराई-गुड़ाई की जाती है। छिटकवाँ विधि से बोई गई फसल में निराई खुप से व पंक्तियों में बोई गई फसल में निराई-गुड़ाई ‘हो' की सहायता से भी कर सकते हैं। रासायनिक विधि से खरपतवार नियन्त्रण करने के लिए फ्लूक्लोरेलिन (बेसालीन )1 किग्रा० (सक्रिय अवयव) 800-1000 ली० पानी में घोलकर प्रति हेक्टेयर की दर से, बोआई से पहले खेत में छिड़ककर, नम मिट्टी में अच्छी प्रकार से हैरो या कल्टीवेटर की सहायता से मिला लेनी चाहिए।

फसल-चक्र—


खरीफ की फसल; जैसे—धान, मक्का, ज्वार, बाजरा, कपास, लोबिया आदि के बाद, रबी में मसूर की फसल सफलतापूर्वक उगा सकते है। धान की पछेती किस्मों के साथ मसूर को छिटककर खड़ी फसल में uthera बो सकते हैं। घाघरा घाट (उ० प्र०) धान अनुसंधान केन्द्र पर इस विधि से मसूर बोने में लाभदायक परिणाम प्राप्त हुए हैं।

मिश्रित खेती–


मसूर को विभिन्न रबी फसलों के साथ मिश्रित रूप में उगाते हैं। प्रमुख फसल मिश्रण जौ + मसूर; जई + मसूर + सरसों; सरसों + मसूर; गन्ना पेड़ी + मसूर व लाही + मसूर आदि हैं। शरद् ऋतु में बोई जाने वाली गन्ने की फसल को दो पंक्तियों के बीच दो पंक्तियाँ मसूर की
बोने से लाभदायक परिणाम मिलते हैं।

कटाई एवं मड़ाई-


मसूर की जाति व फसल अवधि के अनुसार फसल की कटाई की जाती है। अक्तूबर में बोई गई फसल मार्च के अन्त तक या अप्रैल के प्रारम्भ में काट ली जाती है। कटाई हँसिया की सहायता से फलियों के पकने पर करते हैं। कटाई सावधानीपूर्वक करनी चाहिए जिससे कि फलियाँ न चटख पाएँ। एक सप्ताह तक फसल को खलियान में सुखाकर बैलों की दाँय चलाकर दाना अलग कर लिया जाता है। दाना निकालने के लिए प्रेसर का प्रयोग भी कर सकते हैं।
भण्डार में अनाज रखने से पूर्व दानों में नमी की प्रतिशत 12 के लगभग होनी चाहिए।

उपज


 दोनों की औसत उपज 20-35 क०/हेक्टेयर व भसे की उपज 30-35 कु०/हेक्टेयर तक प्राप्त हो जाती है।

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