चना की वैज्ञानिक खेती , Cultivation of chickpea

                              चना

                           (Chickpea)

वानस्पतिक वर्गीकरण (Botanical Classification)


वानस्पतिक नाम- .   सिसर एरिटिनम लीन (Cicer arietinum L.)

कुल (Family) .    लेग्यूमिनेसी (Leguminaceae)

उपकुल (Sub family)       पेपिलियोनेसी (Papelionaceae)

चने में गुणसूत्र संख्या देशी-
       2n =14, काबुली-2n = 16 व 24 

               महत्त्व व उपयोग (Importance and Utility)

 इस देश में उगाई जाने वाली दलहनी फसलों में चना सबसे पुरानी और महत्त्वपूर्ण फसल है। चने का प्रयोग मुख्य रूप से दाल और रोटी के लिए किया जाता है। चने को पीसकर तैयार किए हुए बेसन से विभिन्न प्रकार की स्वादिष्ट मिठाइयाँ तैयार की जाती हैं। पके हुए चने को तथा पकने से पहले भी चने को छोले के रूप में भूनकर खाया जाता है। इसके अलावा दले हुए या समूचे दाने के रूप में उबालकर या सुखाकर, भूनकर या तलकर, नमकीन आदि बनाने के लिए भी चने का प्रयोग किया जाता है। चने की हरी पत्तियों और दानों का प्रयोग सब्जियों के रूप में किया जाता है।

Origin and History


 दक्षिणी पूर्वी यरोप या दक्षिणी-पश्चिमी चने  का उत्पत्ति स्थान माना जाता है। भारत, ग्रीस तथा दक्षिण यूरोप में चने की खेती शताब्दियों से होती है । भारत में चने उगाने के प्रमाण प्राचीन संस्कृत साहित्य में प्राप्त होते हैं। डी कण्डोल 1884 के अनुसार चने का जन्मस्थान भारतवर्ष ही है। कुछ वैज्ञानिकों के अनुसार अफगानिस्तान चने का जन्म-स्थान है। चने की खेती विश्व में मेडिटेरियन क्षेत्र में काले सागर के आस-पास, उष्ण कटिबन्धीय एशिया (Tropical Asia), अफ्रीका के विभिन्न भागों तथा दक्षिण की ओर मध्य अफ्रीका में की जाती है।


वितरण एवं क्षेत्रफल (Distribution and Area) 


मुख्य रूप से चने की खेती करने वाले देशों में रूस, मिस्र, भारत, ईरान, ईराक, टर्की, रूमानिया आदि हैं, परन्तु सीमित क्षेत्र पर चने की खेती दक्षिणी अमेरिका एवं आस्ट्रेलिया में भी की जाती है।

जलवायु (Climate)–


चने की खेती साधारणतया शुष्क फसल के रूप में रबी की ऋतु में की जाती है। जिन स्थानों पर सिंचाई की कोई सुविधा नहीं होती है उन स्थानों पर बिना सिंचाई की सुविधाओं के ही अर्थात् जाड़े की वर्षा के आधार पर ही चना उगाते हैं, परन्तु कुछ स्थानों पर चने की फसल सिंचित फसल के रूप में भी उगाई जाती है। न्यून से मध्यम वर्षा और हल्की सर्दी वाले क्षेत्र इसके लिए सर्वाधिक उपयुक्त हैं, परन्तु फूलने के बाद वर्षा का होना फसल के लिए हानिकारक होता है क्योंकि वर्षा के कारण फूल के परागकण एक दूसरे से चिपक जाते हैं तथा बीजोत्पादन पौधों में सम्भव नहीं होता है। फसल के पकने के समय ओले पड़ना अधिक हानिकारक होता है। अधिक नमी के कारण पौधों में वानस्पतिक वृद्धि अधिक होती है और फूल तथा फली कम बनती हैं। 65 से 95 सेमी० वार्षिक वर्षा वाले स्थान फसल के लिए अधिक उपयुक्त होते हैं, परन्तु चने की खेती लगभग 50 सेमी० वार्षिक वर्षा वाले स्थानों पर भी की जा सकती है। फलियाँ बनते समय यदि वर्षा होती है तो फली बेधक का प्रकोप बढ़ जाता है जिसके कारण उपज में भारी क्षति होती है।


भूमि (Soil)–

चने की खेती हल्की एल्यूवियल भूमियों जहाँ कि गेहूँ को नहीं उगाया जा सकता है, में सफलतापूर्वक की जा सकती है परन्तु काबुली चने के लिए ज्यादा उपजाऊ जमीन की आवश्यकता होती है। चने की खेती दोमट भूमियों से मटियार भूमियों तक में सफलतापूर्वक की जाती है। हल्की कछारी भूमियों में भी चना उगाया जा सकता है। अधिक हल्की और अधिक भारी भूमि चने की खेती के लिए अनुकूल नहीं होती है क्योंकि हल्की भूमियों में नमी की कमी और अधिक भारी भूमियों में नमी की अधिकता प्रतिकूल वायु संचार आदि के कारण चने की जड़ों में पाए जाने वाले जीवाणु अपना कार्य क्लीक तरह नहीं कर पाते हैं।

खेत की तैयारी–

देशी चने के लिए खेत की कोई विशेष तैयारी करने की आवश्यकता नहीं होती। काबुली चने के लिए खरीफ की फसल कटने के बाद पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से व दो जुताई देशी हल से करते हैं।

बीज दर व अन्तरण



बुआई कतारों में 30 सेमी० (असिंचित) से 45 सेमी० (सिंचित) तक की जाती है। बुआई के लिए देशी हल या सीडड्रिल का प्रयोग किया जा सकता है। बीज दर बीज के आकार के अनुसार प्रयोग करनी चाहिए। छोटे दाने वाले 65 किग्रा०, मध्यम आकार के दाने वाली किस्मों के लिए 75-100 किग्रा० व बड़े दाने वाली (काबुली जातियाँ व के० 850) किस्मों के लिए 100-125 किग्रा० बीज प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग करते हैं। बीज 6-8 सेमी० की गहराई पर बोते हैं। बीज को बोने से पहले 0.25 प्रतिशत थायराम या अन्य फफूदीनाशक दवा से उपचारित कर लेना चाहिए। बुआई में देरी हो जाने पर कतारों के बीच की दूरी कम तथा बीज दर कुछ बढ़ा देनी चाहिए। पौधों की आपस में दूरी 4-5 सेमी० रखते हैं।

अन्तरण-

45 x 10 काबुली चना, 30 x 10-15 सेमी० देशी चना।।

खाद


दलहन फसल होने के कारण नत्रजन की अधिक आवश्यकता नहीं होती। प्रारम्भ में 15-20 किग्रा० नत्रजन; 40-50 किग्रा० फॉस्फोरस सिंचित क्षेत्रों में व 200 किग्रा० फॉस्फोरस असिंचित क्षेत्रों में व 20-30 किग्रा० पोटाश प्रति हेक्टेयर, बुआई के समय खेत के कुंड में 9-10 सेमी० की गहराई पर देते हैं।

सिंचाई—


सिंचित क्षेत्रों में पहली सिंचाई शाखाएँ निकलने पर; बुआई के 30 दिन बाद, दूसरी सिंचाई बोने के 55-60 दिन बाद फूल आते समय करनी लाभदायक है। तीसरी सिंचाई फली बनते समय। बोने के 85-90 दिन बाद करनी चाहिए। सिंचित क्षेत्रों में बुआई से पहले पलेवा करना भी लाभदायक है। शीतकालीन वर्षा अगर इस समय हो जाए तो, सिंचाइयों की आवश्यकता नहीं होती। दो सिंचाई का पानी उपलब्ध होने पर, पहली बोने के 30-35 दिन बाद शाखाएँ निकलते समय व दूसरी बोने के 55 दिन बाद फूल निकलते समय देनी चाहिए। अगर एक ही सिंचाई का जल उपलब्ध है तो बुआई के 50 दिन बाद फूल निकलते समय करनी चाहिए।


फसल-चक्र—

खरीफ की फसलें मक्का, ज्वार, बाजरा व धान आदि से बाद में चने की फसल ली जाती है।

मिश्रित खेती–


चने को गेहूँ, जौ के साथ 1 : 1 के अनुपात में, अलसी व सरसों के साथ 4:1 में मिलाकर उगाना चाहिए। अक्टूबर में बोए गए गन्ने की दो कतारों के बीच, चने की एक कतार उगाना काफी लाभप्रद है।

कटाई व मड़ाई-


सब्जी के उद्देश्य से फसल की कटाई बोने के 120 दिन बाद दाने जब सख्त होने प्रारम्भ होते हैं, काट ली जाती है। साधारणतया फसल 150-170 दिन में पककर तैयार हो जाती है। कटाई हँसिया की सहायता से करते हैं तथा बण्डल तैयार कर लिए जाते हैं। बण्डलों को खलियान में सुखाकर, बैलों से दाँय चलाकर, अनाज अलग कर लेते हैं तथा भण्डार में रखने के लिए 10-12% नमी सुखाने के बाद रह जाए तो भण्डारण कर देते हैं।

उपज-


दाने की औसत उपज 15-20 कु० प्रति हेक्टेयर तथा सिंचित क्षेत्र में 25-30 कु०/हेक्टेयर प्राप्त हो जाती है।


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